परछाई

दूरी ही है तेरे होने में
पास आने की बात कब की हो गई,
अब मुस्कुरा रहे है हम दोनों
खुश होने की दास्तां कब की खो गई ।

आंसू निकलते थे मेरे हसाने में
अब रोते हुए भी नहीं निकल रहे जो,
जो अधूरे से लगने लगे हैं
क्या वही वादे हैं वो ।

तेरे आने की आहट
दिल की धड़कनों को कब तेज करती थी,
याद नहीं है अब मुझे
कब तेरे चेहरे को देख
मेरी रात पूरी होती थी।

रुला देता हूं हर बार
अपने खत से जब भी तेरी रूह छूता हूं
अब लाख कोशिश करने पर भी
तुझे खुश करने में क्यों नाकाम होता हूं ।

वह तेरे मिलने पर
घंटो खाने पर बेहेस करना
कैसे भूल जाऊं।
अब तेरे होने पर भी
खाना ना खा पाऊं
कैसे यह झेल जाऊं।

मेरे हमसफ़र मंजिल जब तुम थी
क्यों रास्ते हमने मोड़ दिए
बातें बेहेस की जो छोड़ देनी थी
क्यों हमने जोड़ दिए।

मन है पकड़ के तुझे मैं
अपनी और जब भी खींचू
देखके तेरी आंखों में
इस प्यार के बीज को फिर से सींच लूं ।

सब है पास
तू भी है,
कुछ नहीं है हाथ
तू भी नही है ।

लो से भाग रहा था मैं
या शायद तुम जो पीछे छूट रही थी
मैं रुका हुआ था या तुम भाग रही थी ?

एक ख़ामोशी है तेरे चींखने में
अकेला हूं तेरे होने में
वह जो भाग रहे है इस ज़िदंगी में
मैं रुका हुआ एक तेरी परछाई होने में ।

अब फिर मुस्कुराने की रुत अाई है
मेरे मेहबूब अब तुझसे मिलने की फिर रुत जो छाई है
पकड़के तेरी रूह को केहदू तुझसे
तुझसे अपनी कहानी पूरी करने की घड़ी अाई है।
अब मुझपे रोशनी डाले खुदा या अंधेरा करदे
तेरे बदन और मेरी परछाई एक होने को अाई है ।

13 thoughts on “परछाई

  1. Tooo good bro….a very deep n lovely poem . There is something about you use your words.So magical.👌

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